सोमवार, 7 दिसंबर 2015

गिलोय

भिन्न रोगों और मौसम के अनुसार गिलोय के प्रयोग: -
गिलोय एक रसायन है, यह रक्तशोधक, ओजवर्धक, ह्रुदयरोग नाशक ,शोधनाशक और लीवर टोनिक भी है। यह पीलिया और जीर्ण ज्वर का नाश करती है अग्नि को तीव्र करती है, वातरक्त और आमवात के लिये तो यह महा विनाशक है।
गिलोय के 6″ तने को लेकर कुचल ले उसमे 4 -5 पत्तियां तुलसी की मिला ले इसको एक गिलास पानी में मिला कर उबालकर इसका काढा बनाकर पीजिये। और इसके साथ ही तीन चम्मच एलोवेरा का गुदा पानी में मिला कर नियमित रूप से सेवन करते रहने से जिन्दगी भर कोई भी बीमारी नहीं आती। और इसमें पपीता के 3-4 पत्तो का रस मिला कर लेने दिन में तीन चार लेने से रोगी को प्लेटलेट की मात्रा में तेजी से इजाफा होता है प्लेटलेट बढ़ाने का इस से बढ़िया कोई इलाज नहीं है यह चिकन गुनियां डेंगू स्वायन फ्लू और बर्ड फ्लू में रामबाण होता है।
गैस, जोडों का दर्द ,शरीर का टूटना, असमय बुढापा वात असंतुलित होने का लक्षण हैं। गिलोय का एक चम्मच चूर्ण को घी के साथ लेने से वात संतुलित होता है ।
गिलोय का चूर्ण शहद के साथ खाने से कफ और सोंठ के साथ आमवात से सम्बंधित बीमारीयां (गठिया) रोग ठीक होता है।
गिलोय और अश्वगंधा को दूध में पकाकर नियमित खिलाने से बाँझपन से मुक्ति मिलती हैं।
गिलोय का रस और गेहूं के जवारे का रस लेकर थोड़ा सा पानी मिलाकर इस की एक कप की मात्रा खाली पेट सेवन करने से रक्त कैंसर में फायदा होगा।
गिलोय और गेहूं के ज्वारे का रस तुलसी और नीम के 5 – 7 पत्ते पीस कर सेवन करने से कैंसर में भी लाभ होता है।
क्षय (टी .बी .) रोग में गिलोय सत्व, इलायची तथा वंशलोचन को शहद के साथ लेने से लाभ होता है।
गिलोय और पुनर्नवा का काढ़ा बना कर सेवन करने से कुछ दिनों में मिर्गी रोग में फायदा दिखाई देगा।
एक चम्मच गिलोय का चूर्ण खाण्ड या गुड के साथ खाने से पित्त की बिमारियों में सुधार आता है और कब्ज दूर होती है।
गिलोय रस में खाण्ड डालकर पीने से पित्त का बुखार ठीक होता है। और गिलोय का रस शहद में मिलाकर सेवन करने से पित्त का बढ़ना रुकता है।
प्रतिदिन सुबह-शाम गिलोय का रस घी में मिलाकर या शहद गुड़ या मिश्री के साथ गिलोय का रस मिलकर सेवन करने से शरीर में खून की कमी दूर होती है।
गिलोय ज्वर पीडि़तों के लिए अमृत है, गिलोय का सेवन ज्वर के बाद टॉनिक का काम करता है, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। शरीर में खून की कमी (एनीमिया) को दूर करता है।
फटी त्वचा के लिए गिलोय का तेल दूध में मिलाकर गर्म करके ठंडा करें। इस तेल को फटी त्वचा पर लगाए वातरक्त दोष दूर होकर त्वचा कोमल और साफ होती है।
सुबह शाम गिलोय का दो तीन टेबल स्पून शर्बत पानी में मिलाकर पीने से पसीने से आ रही बदबू का आना बंद हो जाता है।
गिलोय के काढ़े को ब्राह्मी के साथ सेवन से दिल मजबूत होता है, उन्माद या पागलपन दूर हो जाता है, गिलोय याददाश्त को भी बढाती है।
गिलोय का रस को नीम के पत्ते एवं आंवला के साथ मिलाकर काढ़ा बना लें। प्रतिदिन 2 से 3 बार सेवन करे इससे हाथ पैरों और शरीर की जलन दूर हो जाती है।
मुंहासे, फोड़े-फुंसियां और झाइयो पर गिलोय के फलों को पीसकर लगाये मुंहासे, फोड़े-फुंसियां और झाइयां दूर हो जाती है।
गिलोय, धनिया, नीम की छाल, पद्याख और लाल चंदन इन सब को समान मात्रा में मिलाकर काढ़ा बना लें। इस को सुबह शाम सेवन करने से सब प्रकार का ज्वर ठीक होता है।
गिलोय, पीपल की जड़, नीम की छाल, सफेद चंदन, पीपल, बड़ी हरड़, लौंग, सौंफ, कुटकी और चिरायता को बराबर मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण के एक चम्मच को रोगी को तथा आधा चम्मच छोटे बच्चे को पानी के साथ सेवन करने से ज्वर में लाभ मिलता है।
गिलोय, सोंठ, धनियां, चिरायता और मिश्री को सम अनुपात में मिलाकर पीसकर चूर्ण बना कर रोजाना दिन में तीन बार एक चम्मच भर लेने से बुखार में आराम मिलता है।
गिलोय, कटेरी, सोंठ और अरण्ड की जड़ को समान मात्रा में लेकर काढ़ा बनाकर पीने से वात के ज्वर (बुखार) में लाभ पहुंचाता है।
गिलोय के रस में शहद मिलाकर चाटने से पुराना बुखार ठीक हो जाता है। और गिलोय के काढ़े में शहद मिलाकर सुबह और शाम सेवन करें इससे बारम्बार होने वाला बुखार ठीक होता है।गिलोय के रस में पीपल का चूर्ण और शहद को मिलाकर लेने से जीर्ण-ज्वर तथा खांसी ठीक हो जाती है।
गिलोय, सोंठ, कटेरी, पोहकरमूल और चिरायता को बराबर मात्रा में लेकर काढ़ा बनाकर सुबह और शाम सेवन करने से वात का ज्वर ठीक हो जाता है।
गिलोय और काली मिर्च का चूर्ण सम मात्रा में मिलाकर गुनगुने पानी से सेवन करने से हृदयशूल में लाभ मिलता है। गिलोय के रस का सेवन करने से दिल की कमजोरी दूर होती है और दिल के रोग ठीक होते हैं।
गिलोय और त्रिफला चूर्ण को सुबह और शाम शहद के साथ चाटने से मोटापा कम होता है और गिलोय, हरड़, बहेड़ाऔर आंवला मिला कर काढ़ा बनाइये और इसमें शिलाजीत मिलाकर और पकाइए इस का नियमित सेवन से मोटापा रुक जाता है।
गिलोय और नागरमोथा, हरड को सम मात्रा में मिलाकर चूर्ण बना कर चूर्ण शहद के साथ दिन में 2 – 3 बार सेवन करने से मोटापा घटने लगता है।
बराबर मात्रा में गिलोय, बड़ा गोखरू और आंवला लेकर कूट-पीसकर चूर्ण बना लें। इसका एक चम्मच चूर्ण प्रतिदिन मिश्री और घी के साथ सेवन करने से संभोग शक्ति मजबूत होती है।
अलसी और वशंलोचन समान मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें, और इसे गिलोय के रस तथा शहद के साथ हफ्ते – दस दिन तक सेवन करे इससे वीर्य गाढ़ा हो जाता है।
लगभग 10 ग्राम गिलोय के रस में शहद और सेंधानमक (एक-एक ग्राम) मिलाकर, इसे खूब उबाले फिर इसे ठण्डा करके आंखो में लगाएं इससे नेत्र विकार ठीक हो जाते हैं।
गिलोय का रस आंवले के रस के साथ लेने से नेत्र रोगों में आराम मिलता है।
गिलोय के रस में त्रिफला को मिलाकर काढ़ा बना लें। इसमें पीपल का चूर्ण और शहद मिलकर सुबह-शाम सेवन करने से आंखों के रोग दूर हो जाते हैं और आँखों की ज्योति बढ़ जाती हैं।
गिलोय के पत्तों को हल्दी के साथ पीसकर खुजली वाले स्थान पर लगाइए और सुबह-शाम गिलोय का रस शहद के साथ मिलाकर पीने से रक्त विकार दूर होकर खुजली से छुटकारा मिलता है।
गिलोय के साथ अरण्डी के तेल का उपयोग करने से पेट की गैस ठीक होती है।
श्वेत प्रदर के लिए गिलोय तथा शतावरी का काढ़ा बनाकर पीने से लाभ होता है।गिलोय के रस में शहद मिलाकर सुबह-शाम चाटने से प्रमेह के रोग में लाभ मिलता है।
गिलोय के रस में मिश्री मिलाकर दिन में दो बार पीने से गर्मी के कारण से आ रही उल्टी रूक जाती है। गिलोय के रस में शहद मिलाकर दिन में दो तीन बार सेवन करने से उल्टी बंद हो जाती है।
गिलोय के तने का काढ़ा बनाकर ठण्डा करके पीने से उल्टी बंद हो जाती है।
6 इंच गिलोय का तना लेकर कुट कर काढ़ा बनाकर इसमे काली मिर्च का चुर्ण डालकर गरम गरम पीने से साधारण जुकाम ठीक होगा।
पित्त ज्वर के लिए गिलोय, धनियां, नीम की छाल, चंदन, कुटकी क्वाथ का सेवन लाभकारी है, यह कफ के लिए भी फायदेमंद है।
नजला, जुकाम खांसी, बुखार के लिए गिलोय के पत्तों का रस शहद मे मिलाकर दो तीन बार सेवन करने से लाभ होगा।
1 लीटर उबलते हुये पानी मे एक कप गिलोय का रस और 2 चम्मच अनन्तमूल का चूर्ण मिलाकर ठंडा होने पर छान लें। इसका एक कप प्रतिदिन दिन में तीन बार सेवन करें इससे खून साफ होता हैं और कोढ़ ठीक होने लगता है।
गिलोय का काढ़ा बनाकर दिन में दो बार प्रसूता स्त्री को पिलाने से स्तनों में दूध की कमी होने की शिकायत दूर होती है और बच्चे को स्वस्थ दूध मिलता है।
एक टेबल स्पून गिलोय का काढ़ा प्रतिदिन पीने से घाव भी ठीक होते है।गिलोय के काढ़े में अरण्डी का तेल मिलाकर पीने से चरम रोगों में लाभ मिलता है खून साफ होता है और गठिया रोग भी ठीक हो जाता है।
गिलोय का चूर्ण, दूध के साथ दिन में 2-3 बार सेवन करने से गठिया ठीक हो जाता है।
गिलोय और सोंठ सामान मात्रा में लेकर इसका काढ़ा बनाकर पीने से पुराने गठिया रोगों में लाभ मिलता है।
या गिलोय का रस तथा त्रिफला आधा कप पानी में मिलाकर सुबह-शाम भोजन के बाद पीने से घुटने के दर्द में लाभ होता है।
गिलोय का रास शहद के साथ मिलाकर सुबह और शाम सेवन करने से पेट का दर्द ठीक होता है।
मट्ठे के साथ गिलोय का 1 चम्मच चूर्ण सुबह शाम लेने से बवासीर में लाभ होता है।गिलोय के रस को सफेद दाग पर दिन में 2-3 बार लगाइए एक-डेढ़ माह बाद असर दिखाई देने लगेगा ।
गिलोय का एक चम्मच चूर्ण या काली मिर्च अथवा त्रिफला का एक चम्मच चूर्ण शहद में मिलाकर चाटने से पीलिया रोग में लाभ होता है।
गिलोय की बेल गले में लपेटने से भी पीलिया में लाभ होता है। गिलोय के काढ़े में शहद मिलाकर दिन में 3-4 बार पीने से पीलिया रोग ठीक हो जाता है।
गिलोय के पत्तों को पीसकर एक गिलास मट्ठा में मिलाकर सुबह सुबह पीने से पीलिया ठीक हो जाता है।
गिलोय को पानी में घिसकर और गुनगुना करके दोनों कानो में दिन में 2 बार डालने से कान का मैल निकल जाता है। और गिलोय के पत्तों के रस को गुनगुना करके इस रस को कान में डालने से कान का दर्द ठीक होता है।
गिलोय का रस पीने से या गिलोय का रस शहद में मिलाकर सेवन करने से प्रदर रोग खत्म हो जाता है। या गिलोय और शतावरी को साथ साथ कूट लें फिर एक गिलास पानी में डालकर इसे पकाएं जब काढ़ा आधा रह जाये इसे सुबह-शाम पीयें प्रदर रोग ठीक हो जाता है।
गिलोय के रस में रोगी बच्चे का कमीज रंगकर सुखा लें और यह कुर्त्ता सूखा रोग से पीड़ित बच्चे को पहनाकर रखें। इससे बच्चे का सूखिया रोग जल्द ठीक होगा।
मात्रा : गिलोय को चूर्ण के रूप में 5-6 ग्राम, सत् के रूप में 2 ग्राम तक क्वाथ के रूप में 50 से 100 मि. ली.की मात्रा लाभकारी व संतुलित होती है

paralysis information and treatment


पक्षाघात (लकवा) पैरालिसिस में रोगी का आधा मुंह टेढ़ा हो जाता हैं, गर्दन टेढ़ी हो जाती हैं, मुंह से आवाज़ नहीं निकल पाती, आँख, नाक, गाल व् भोंह टेढ़ी पढ़ जाती हैं, ये फड़कते हैं और इनमे दर्द होता हैं। मुंह से लार गिरती रहती हैं।
पक्षाघात paralysis होने के लक्षण
सबसे पहला लक्षण होता हैं के व्यक्ति को बोलने में तकलीफ आती हैं, उसके शब्द टूट टूट कर बाहर आते हैं। काम करते समय सामान हाथो से छूटना, हाथ पैर जवाब दे जाते हैं, ऐसी स्थिति को पक्षाघात होना माना जा सकता हैं।
पक्षाघात paralysis कारण ।
पक्षाघात होने के कई कारण हो सकते हैं, जिनमे प्रमुख हैं हाई ब्लड प्रेशर, स्ट्रोक, बैड कोलेस्ट्रोल के बढ़ने से, या कई बार रोगी को इनमे कोई लक्षण नहीं होते तो उसको ब्लड क्लॉटिंग की वजह से भी पक्षाघात (लकवा) हो सकता हैं।
पक्षाघात paralysis के प्रकार।
शरीर के आधे भाग, दायीं या बायीं तरफ के अंग अपना कार्य बंद कर दे तो इसको अधरंग बोलते हैं।
कई बार रोगी को एक अंग में ही लकवा होता हैं तो जैसे ही लकवे के लक्षण दिखाई दे तो तुरंत देसी गाय का घी गर्म कर के, अगर घी नहीं हो तो सरसों का तेल गर्म कर के, उस से तुरंत मालिश करे।
हमारे ब्रेन के दो हिस्से हैं दायां और बायां। अगर ये अटैक हमारे बाएं हिस्से में आया हैं तो शरीर का दायां भाग नकारा हो जाता हैं और अगर ये अटैक दायें हिस्से में आया है तो शरीर का बायां भाग नकारा हो जाता हैं, और अगर दोनों भागो में अटैक आ जाए तो पूरा शरीर ही इसकी चपेट में आ जाता हैं।
पक्षाघात paralysis में आयुर्वेद दवा।
अगर पक्षघात दायीं तरफ हैं तो।
अगर शरीर का कोई अंग या शरीर दायीं तरफ से लकवाग्रस्त है तो उसके लिए व्रहतवातचिंतामणि रस (वैदनाथ फार्मेसी) की ले ले। उसमे छोटी-छोटी गोली (बाजरे के दाने से थोड़ी सी बड़ी) मिलेंगी। उसमे से एक गोली सुबह ओर एक गोली साँय को शुद्ध शहद से लेवें।
अगर पक्षघात बायीं तरफ हैं तो।
अगर कोई भाई बहिन बायीं तरफ से लकवाग्रस्त है उसको वीर-योगेन्द्र रस (वैदनाथ फार्मेसी) की सुबह साँय एक एक गोली शहद के साथ लेनी है।
अब गोली को शहद से कैसे ले………? उसके लिए गोली को एक चम्मच मे रखकर दूसरे चम्मच से पीस ले, उसके बाद उसमे शहद मिलकर चाट लें। ये दवा निरंतर लेते रहना है, जब तक पीड़ित स्वस्थ न हो जाए।
क्या खायें।
पीड़ित व्यक्ति को मिस्सी रोटी (चने का आटा) और शुद्ध घी (मक्खन नहीं) का प्रयोग प्रचुर मात्र मे करना है। शहद का प्रयोग भी ज्यादा से ज्यादा अच्छा रहेगा।
क्या ना खायें।
लाल मिर्च, गुड़-शक्कर, कोई भी अचार, दही, छाछ, कोई भी सिरका, उड़द की दाल पूर्णतया वर्जित है।
फल
फल मे सिर्फ चीकू ओर पपीता ही लेना है, अन्य सभी फल वर्जित हैं।
लकवा अर्थात पक्षाघात होने पर निम्नलिखित घरेलु उपचार करने चाहिए।
1. राई, अकरकरा और शहद तीनो ६-६ ग्राम ले, राई और अकरकरा को कूट पीसकर कपड़छान कर ले तथा शहद में मिला ले। इसे दिन में 3-4 बार जीभ पर मलते रहे। लकवे में आराम मिलता हैं।
2. पच्चीस ग्राम छिला हुआ लहसुन पीसकर दूध में उबाले। खीर की तरह गाढ़ा होने पर उतारकर ठंडा होने पर खाए। पक्षघात में बहुत आराम मिलेगा।
3. सौंठ और उड़द उबालकर इसका पानी पीने से लकवा में बहुत आराम आता हैं, यह नुस्खा अनेक लोगो पर आजमाया हुआ हैं।
4. लहसुन की 5-6 कली पीसकर उसे पंद्रह ग्राम शहद में मिलाकर सुबह शाम लेने से लकवा में आराम मिलता हैं।
5. अदरक अथवा सौंठ को महीन पीसकर उसमे सेंधा नमक मिलाकर तत्काल रोगी को सुंघाए। पक्षाघात में आराम मिलेगा।
6. तुलसी की माला कमर में बांधे रखने से पक्षाघात का भय नहीं रहता।
7. उड़द, कौंच के बीज, अरण्ड की जड़, बला, हींग और सेंधा नमक -सभी बराबर मात्रा में लेकर काढ़ा बनाकर रोगी को दे। इस से पक्षाघात में आराम मिलता हैं। हाथ पैर काम करने लगते हैं।
8. अरण्ड का तेल, गंधक, हरड़, बहेड़ा, आंवला और शुद्ध गुग्गल का समान भाग ले कर खूब कूटे, फिर चने के बराबर गोलिया बना ले। एक एक गोली दो तीन बार रोगी को गर्म जल से दे। पक्षाघात खत्म हो जायेगा।
रोगी को रोग की तीव्रता अनुसार इनमे 2 या 3 घरेलु नुस्खे अपनाने चाहिए। और नारायण तेल, लाक्षादि तेल अथवा माषादि तेल की मालिश करना लकवा के रोगी के लिए अत्यंत आवश्यक हैं
9अरिंड के बीज की गिरी लें 250 ग्राम,इसको तीन दिन तक ताजी लस्सी मे भिगोवें,,तीन दिन बाद इन गिरीयों को 250 ग्राम देसी घी मे हलके सेंक पर भून लेवें,,भूनने के बाद इनको हलका कूट लें! अब इसमे
काली मिर्च ------18 ग्राम
छोटी मघ---------_18 ग्राम
कुलंजन-----------18 ग्राम
सूंढ------------------30 ग्राम
अकरकरा--------- 6 ग्राम
जौखार------------- 8ग्राम
सेंधा नमक--------- 8 ग्राम
सच्चर नमक-------- 8 ग्राम
लौंग----------------- 8 ग्राम
कलमी शोरा------ 8 ग्राम
नाग केसर--------- 8 ग्राम
पिपलामूल--------- 8 ग्राम
निरगुंडी------------- 8 ग्राम
सभी को अरिंड बीज की गिरी के साथ मिलाकर इतना कूटें कि ये सब चीजें आपस मे मिल कर मलाई जैसी हो जाएं! अब इसकी रीठे जितनी बड़ी गोलीयां बना लेवें ! एक गोली सुबह व एक शाम को देना शुरु करें

चिरायता (सुआर्शिया चिरायता)




चिरायता (सुआर्शिया चिरायता)
इसे जंगलों में पाए जानेवाले तिक्त द्रव्य के रूप में होने के कारण किराततिक्त भी कहते हैं । किरात व चिरेट्टा इसके अन्य नाम हैं । चरक के अनुसार इसे तिक्त स्कंध तृष्णा निग्रहण समूह में तथा सुश्रुत के अनुसार अरग्वध समूह में गिना जाता है ।
वानस्पतिक परिचय-यह ऊँचाई पर पाया जाने वाला पौधा है । इसके क्षुप 2 से 4 फुट ऊँचे एक वर्षायु या द्विवर्षायु होते हैं । यह हिमालय प्रदेश में कश्मीर से लेकर अरुणांचल तक 4 से 10 हजार फीट की ऊँचाई पर होता है । नेपाल इसका मूल उत्पादक देश है । कहीं-कहीं मध्य भारत के पहाड़ी इलाकों व दक्षिण भारत के पहाड़ों पर उगाने के प्रयास किए गए हैं ।
इसके काण्ड स्थूल आधे से डेढ़ मीटर लंबे, शाखा युक्त गोल व आगे की ओर चार कोनों वाले पीतवर्ण के होते हैं । पत्तियाँ चौड़ी भालाकार, 10 सेण्टीमीटर तक लंबी, 3 से 4 सेण्टीमीटर चौड़ी अग्रभाग पर नुकीली होती हैं । नीचे बड़े तथा ऊपर छोटी होती चली जाती है ।
फूल हरे पीले रंग के बीच-बीच में बैंगनी रंग से चित्रित, अनेक शाखा युक्त पुष्पदण्डों पर लगते हैं । पुष्प में बाहरी व आभ्यन्तर कोष 4-4 खण्ड वाले होते हैं तथा प्रत्येक पर दो-दो ग्रंथियाँ होती हैं । फल लंबे गोल छोटे-छोटे एक चौथाई इंच के अण्डाकार होते हें तथा बीज बहुसंख्य, छोटे, बहुकोणीय एवं चिकने होते हैं । वर्षा ऋतु में फूल आते हैं । फल जब वर्षा के अंत तक पक जाते हैं तब शरद ऋतु में इनका संग्रह करते हैं । इस पौधे में कोई विशेष गंध नहीं होती, परन्तु स्वाद तीखा होता है ।
पहचान मिलावट शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
इसका पंचांग व पुश्प प्रयुक्त होते हैं । बहुत शीघ्रता से उपलब्ध न होने के कारण इसमें मिलावट काफी होते हैं । पंचांग में भी प्रधानतया काण्ड की ही होती है जो दो तीन फीट लंबा होता है । इसकी छाल चपटी, अन्दर की ओर कुछ मुड़ी हुई तथा बाहर की तरफ भूरे रंग की व अन्दर से गुलाबी रंग की ही होती है । चबाने पर छाल रेशेदार, कुरकुरी, कसैली मालूम पड़ती है । छाल के अंदर की तरफ सूक्ष्म रेखाएँ खिंची होती हैं ।
सुअर्सिया चिरायता की कई प्रजातियों का प्रयोग मिलावट में पंसारीगण करते हैं । इनमें कुछ हें मीठा या पहाड़ी चिरायता (सुअसिंया अंगस्टीफोलिया) सुअर्शिया अलाटा, बाईमैक-लाटा, सिलिएटा, डेन्सीफोलिया, लाबी माईनर, पैनीकुलैटा । इसके अतिरिक्त चिरायता में कालमेघ (एण्ड्रोग्राफिस पैनिकुलैटा) तथा मंजिष्ठा (रुविया कॉडियाफोलिया) की भी मिलावट की जाती है ।
कालमेघ को हरा चिरायता नाम भी दिया गया है । इनकी पहचान करने का एक ही तरीका है कि दीखने में एक से होते हुए भी शेष स्वाद में अर्ध तिक्त या मीठे होते हैं । छाल के अंदर की बनावट को ध्यान से देखकर भेद किया जा सकता है । अनुप्रस्थ काट पर मज्जा का भाग स्पष्ट दिखाई देता है । यह कोमल होता है, आसानी से पृथक हो जाता है । शेष परीक्षण रासायनिक विश्लेषण के आधार पर किया जाता है । जिसके अनुसार तिक्त सत्व कम से कम 1.3 प्रतिशत होना चाहिए ।
मीठे चिरायते का तना आयताकार होता है तथा असली चिरायते की तुलना में मज्जा का भाग अपेक्षाकृत कम होता है । शेष सभी मिलाकर औषधियों को उनके विशिष्ट लक्षणों द्वारा पहचाना जा सकता है ।
संग्रह-संरक्षण कालावधि-
‍पौधे को औषधि प्रयोजन हेतु फल के पूर्ण रूप से पकने पर शरद ऋतु में एकत्रित करते हैं । ऐसा संग्रहीत चिरायता एक वर्ष तक प्रयुक्त हो सकता है । चिरायते की छाल को सुखाकर अनाद्र शीतल स्थानों में बंद डिब्बों में रखा जाता है ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
इसे लगभग सभी विद्यानों ने सन्निपात ज्वर, व्रण, रक्त, दोषों की सर्वश्रेष्ठ औषधि माना है । भाव प्रकाश निघण्टुकार लिखता है-किरातः सारको रक्षोऽशीतलस्तिक्तको लघुः । सन्निपात ज्वरश्वांस कफ पित्तास्रदाहनुत्॥ कासशोथ तृषा कुष्ठ ज्वर व्रण कृमिप्रणुत॥
इस प्रकार एक प्रकार की प्रतिसंक्रामक औषधि यह है, जो ज्वर उत्पन्न करने वाले मूल कारणों का निवारण करती है । इसी प्रकार यह तीखेपन के कारण कफ पित्त शामक तथा उष्ण वीर्य होने से वातशामक है । इन सभी दोषों के कारण उत्पन्न किसी भी संक्रमण से यह मोर्चा लेता है । कोढ़, कृमि तथा व्रणों को मिटाता है ।
वनौषधि चन्द्रोदय के विद्वान लेखक के अनुसार जीर्ण विषम ज्वर अपना स्वरूप बहुधा ज्वर रूप में प्रकट नहीं करता, अपितु अजीर्ण, अग्निमंदता और हल्के तापक्रम में वृद्धि के रूप में ही दिखाई देता है । इन लक्षणों को समूल नष्ट करने में चिरायता अत्यन्त उपयोगी है । चिरायते का ज्वरघ्न प्रभाव अत्यंत मृदु होता है ।
'वेल्थ ऑफ इण्डिया' के विद्वान वैज्ञानिकों के अनुसार चिरायता एक ऐसा गंधहीन कडुवा पदार्थ है, जिसमें कषायता (एस्टि्रन्जेन्सी) बहुत कम है । एलोपैथी सिद्धान्त के अंतर्गत यह काफी समय तक ब्रिटिश और अमेरिकनफर्मेकोपिया की एक महत्त्वपूर्ण औषधि रही । इण्डियन फर्मेकोपिया (आई.पी.) में भी इसे एक ज्वर निवारक पदार्थ के नाते स्थान मिला । जीर्ण ज्वरों में भारत में काफी समय से अनेकों योगों और विधियों के रूप में इसका चूर्ण, क्वाथ, टिंक्चर सभी प्रयुक्त होते रहे हैं ।
कर्नल चोपड़ा ने अपने ग्रंथ 'मेडीसिनल प्लाण्ट्स ऑफ इण्डिया' में इसे एक उत्तम प्रति संक्रामक (एण्टी बायोटिक) ज्वरघ्न, जीवनीशक्ति वर्धक तथा जीवाणु-कृमि नाशक माना है । डॉ. शरतचन्द्र घोष के अनुसार यह टायफाइड ज्वरों और बीच-बीच में ठहरकर आने वाले इण्टरमीटेण्ट फीवर्स में बहुत उपयोगी है । उनके अनुसार यह वैद्यों की आजमायी एक श्रेष्ठ दवा है ।
रासायनिक संगठन-
चिरायते में पीले रंग का एक कड़ुवा अम्ल-ओफेलिक एसिड होता है । इस अम्ल के अतिरिक्त अन्य जैव सक्रिय संघटक हैं । दो प्रकार के कडुवे ग्लग्इकोसाइड्स चिरायनिन और एमेरोजेण्टिन, दो क्रिस्टलीयफिनॉल, जेण्टीयोपीक्रीन नामक पीले रंग का एक न्यूट्रल क्रिस्टल यौगिक तथा एक नए प्रकार का जैन्थोन जिसे 'सुअर्चिरन' नाम दिया गया है ।
एमेरोजेण्टिन नामक ग्लाईकोसाइड विश्व के सर्वाधिक कड़वे पदार्थों में से एक है । इसका कड़वापन एक करोड़ चालीस लाख में एक भाग की नगण्य सी सान्द्रता पर भी अनुभव होता रहता है । यह सक्रिय घटक ही चिरायते की औषधीय क्षमता का प्रमुख कारण भी है । इण्डियन फर्मेकोपिया द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार चिरायते में तिक्त घटक 1.3 प्रतिशत होना चाहिए । इसके द्रव्य गुण पक्ष पर लिखे शोध प्रबंध में बी.एच.यू. के डॉ. प्रेमव्रत शर्मा ने इसके रासायनिक संघटकों में से प्रत्येक के गुण धर्मों व उनके प्रायोगिक प्रभावों पर विस्तार से प्रकाश डाला है ।
आधुनिक मत-
एलोपैथी, आर्युवेद, होम्योपैथी और यूनानी सभी में एक स्वर से इसके ज्वरघ्न प्रभावों की प्रशंसा की है । एलोपैथी में एण्टीबायोटिक्स की बाढ़ आ जाने पर भी चिरायते की हानि रहित विशेषताओं को अभी तक कोई चुनौती नहीं दे पाया है । 'सिनकोना' की तरह ही यह मलेरिया ज्वर पर प्रभाव डालती है तथा यकृत एवं रक्त से इसके पेरासाइट्स को निकाल बाहर करती है । अन्य रासायनिक एण्टी मलेरियन लेने के बाद जो कमजोरी आती है, वह इसको ग्रहण करने पर अनुभव नहीं होती ।

इसका कारण बताते हुए डॉ. खोरी कहते हैं कि यह मूलतः इसके शरीर की जीवाणुरोधी शक्ति बढ़ाने वाली सामर्थ्य के कारण है न कि मारक प्रभावों के कारण । श्री खगेन्द्रनाथ वसु के अनुसार प्रातः काल खाली पेट लिया गया चिरायते का काढ़ा या चूर्ण (चिरायता भिगाया जल मिश्री के साथ) लेने से उदरस्थ कृमि तुरंत समाप्त हो जाते हैं । एक माह तक ऐसा करने पर कुछ रोग भी समूल नष्ट हो जाता है ।
डॉ. प्रसाद बनर्जी की 'मटेरिया मेडीका ऑफ इण्डियन ड्रग्स' के अनुसार चिरायता इन्फ्लुएंजा, मलेरिया और टॉयफाइड जैसे अलग-अलग कारणें से होने वाले ज्वरों में समान रूप से लाभकारी है ।
होम्योपैथी में चिरायते की उपयोगिता ज्वर निवारण हेतु सर्वप्रथम डॉ. कालीकुमार भट्टाचार्य जी ने प्रतिपादित की । श्री घोष अपनी पुस्तक 'ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान' में लिखते हैं कि चिरायता नए (एक्यूट) और पुराने (क्रांनिक) दोनों ही प्रकार के ज्वरों को मिटाता है । नए वे जो विषाणु या मलेरिया पेरासाइटजन्य होते हैं । पुराने जीर्ण ज्वर बहुधा कमजोर लोगों में जड़ जमाए बैठे घातक जीवाणुओं के कारण होते हैं । आँखों में जलन के साथ दोपहर के बाद चढ़ने वाले तेज बुखार के लिए होम्योपैथी वैद्य चिरायता ही प्रयुक्त करते हैं ।
कालाजार नामक जीर्ण ज्वर रोग में जिसमें लीवर तथा स्प्लीन दोनों बढ़ जाते हैं, चिरायता चमत्कारी प्रभाव दिखाता है । इसका मदर टिंक्चर एक और तीन एक्स की पोटेन्सी में होम्योपैथी में प्रयुक्त होता है ।
यूनानी में चिरायता को दूसरे दर्जे में गर्म और खुश्क माना गया है । इसका ज्वर निवारण के रूप में उपयोग प्रसिद्ध है । विशेष कर यह पुराने ज्वरों में लाभ करता है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार जीर्ण ज्वर के साथ अपच व शरीर में दाह हो तथा ज्वर कम होते हुए भी सामान्य को कभी वह छूता हो चिरायता तुरंत लाभ करता है ।
ग्राह्य अंग-
इसका पंचांग व पुष्प प्रवृत्त होते हैं फिर भी जड़काण्ड सर्वाधिक गुण युक्त होते हैं । इसका क्वाथ या चूर्ण किसी मधुर वाहक के साथ अनुपान भेदानुसार लेते हैं ।
मात्रा-
क्वाथ-50 से 100 मिलीलीटर दिन में दो बार विभाजित कर । चूर्ण एक से तीन ग्राम ।
उपयोग-
ज्वर निवारण हेतु 3 ग्राम चिरायता 20 ग्राम जल में भिगोकर, रात भर रखकर प्रातः छान लेते हैं तथा 5 ग्राम दिन में दो बार मधु के साथ लेते हैं । चिरायते का फाण्ट भी सामान्य दुर्बलता निवारण हेतु अन्य औषधियों के अलावा क्षुधावृद्धि तथा आहार पाक हेतु दिया जाता है ।
चिरायते का काढ़ा एक सेर औंस की मात्रा में मलेरिया ज्वर में तुरंत लाभपहुँचाता है । लीवर प्लीहा पर इसका प्रभाव सीधा पड़ता है व ज्वर मिटाकर यह दौर्बल्य को भी दूर करता है । कृमि रोग कुष्ठ, वैसीलिमिया, वायरीमिया सभी में इसकी क्रिया तुरंत होती है । यह त्रिदोष निवारक है अतः बिना किसी न नुनच के प्रयुक्त हो सकता है ।
अन्य उपयोग-संस्थानिक बाह्य उपयोग के रूप में यह व्रणों को धोने, अग्निमंदता, अजीर्ण, यकृत विकारों में आंतरिक प्रयोगों के रूप में, रक्त विकार उदर तथा रक्त कृमियों के निवारणार्थ, शोथ एवं ज्वर के बाद की दुर्बलता हेतु भी प्रयुक्त होता है । इसे एक उत्तम सात्मीकरण स्थापित करने वाला टॉनिक भी माना गया है