शुक्रवार, 24 जून 2016

#योग करते वक्त सावधानिया

प्राणायाम के अभ्यास में सावधानियां

प्राणायाम के अभ्यास में सावधानियां

          पुराने समय में योग साधना के अभ्यास से पहले ही आश्रम में साधक को उपासना आदि को पूर्ण करने की जानकारी दी जाती था। उपासना के बाद साधक के द्वारा योग साधना करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी और किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न भी होती तो उनके गुरू द्वारा उस बाधा को खत्म कर दिया जाता था। इससे योग साधना में जल्द सिद्धि प्राप्त होती थी।

प्राणायाम में आयु की स्थिति-

          प्राणायाम का अभ्यास 7 से 40 वर्ष के आयु वाले व्यक्ति आसानी से कर सकते हैं। जिसके शरीर में रक्त संचालन (खून का प्रवाह) सामान्य न हो तथा जिनके फेफड़े व हृदय में जन्म से ही रोग हो, उन्हें प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए।

प्राणायाम करने वाले व्यक्ति की स्थिति-

           प्राणायाम का अभ्यास करने वाले व्यक्ति में रागद्वेष न हो, उसका मन हमेशा शांत व प्रसन्न रहें, शारीरिक व मानसिक रूप से वह स्वच्छ हो और उसकी भावना निर्मल हो और उसमें योगाभ्यास के लिए उत्साह हो।

            योग ग्रन्थों में कहा गया है कि प्राणायाम के अभ्यास से  पहले आसनों के द्वारा शरीर तथा अन्दर की नसों व नाड़ियों को मुलायम बना लेना चाहिए। साधना के लिए शास्त्रों में पद्मासन, सिद्धासन आदि को अच्छा माना गया है। इन आसनों के द्वारा शरीर व मन में मजबूती आती है अर्थात एक ही आसन में घंटों बिना हिले-डुले बैठने का अभ्यास होना चाहिए। आसन में बैठने में सफलता प्राप्त करने के बाद ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।

प्राणायाम को शुरू करने के लिए मौसम-

           प्राणायाम का अभ्यास को शुरू करने के लिए बसन्त व सर्दी का मौसम सबसे अच्छा होता है। प्राणायाम का अभ्यास दूसरे मौसम में करने से कुछ परेशानी आ सकती है। इसका अभ्यास बसन्त व सर्दी के मौसम में करने के बाद इसका अभ्यास हो जाने पर किसी भी मौसम में अभ्यास करने से कोई हानि नहीं होती। प्राणायाम का अभ्यास अपने स्वभाव के अनुसार ही करना चाहिए। इसके लिए प्राणायाम के अभ्यास से पहले योग के जानकारों की सलाह लेकर ही अभ्यास करना चाहिए।  

प्राणायाम के अभ्यास के लिए वातावरण-

           प्राणायाम के अभ्यास के लिए स्वच्छ व शांत वातावरण का होना आवश्यक है, जिससे मन को एकाग्र करने में आसानी हो सकें। स्थान ऐसा होना चाहिए, जिसमें शुद्ध वायु का प्रवाह हो और हवा का तेज झोंका न आता हों। पूर्ण रूप से खुले स्थान पर भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए, जिससे हवा के कारण शरीर से निकलने वाला पसीना अन्दर ही रुक जाए। तेज हवा के कारण शरीर से निकलने वाली गन्दगी व गर्मी जो पसीने के रूप में बाहर निकलती है, वह पूर्ण रूप से बाहर नहीं निकल पाती। शरीर की गर्मी व गन्दगी अन्दर ही रह जाने से प्राणायाम के अभ्यास में परेशानी उत्पन्न कर सकती है। अभ्यास के समय शरीर से जो पसीना निकलता है, उससे शरीर के अन्दर की नसें-नाड़ियां शुद्ध होती है। अभ्यास के समय निकलने वाले पसीने को पुन: शरीर पर ही मलने का नियम है। इससे शरीर कोमल होता है।

          प्राचीन योग ग्रन्थों में लिखा है-  प्राणायाम का अभ्याय दिन में 4 बार सुबह सूर्योदय से पहले, दोपहर, शाम और आधी रात को किया जा सकता है। प्राणायाम का अभ्यास एक बार में एक प्राणायाम से शुरू करना चाहिए और प्रतिदिन इसके अभ्यास में 5 प्राणायामों को बढ़ाते रहना चाहिए। इसका अभ्यास प्रतिदिन करते रहने से इसका अभ्यास इतना हो जाता है कि एक समय में 80 प्राणायाम भी कर सकते हैं और इस तरह दिन के 4 समय में 320 प्राणायाम किए जा सकते हैं। इन 4 समय को मिलाकर जो समय प्राणायाम में लगता है, वह लगभग 6 घंटे का समय होता है। दिन में 6 घंटे प्राणायाम का अभ्यास करना सम्भव नहीं है, इसलिए अपनी सुविधा व क्षमता के अनुसार ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। प्राणायाम के अभ्यास में कठिनाई न हो, इसलिए किसी अनुभवी योगाभ्यास गुरू का सहयोग लें।

          अधिकतर प्राणायाम का अभ्यास दिन में 2 बार ही करना काफी होता है। प्राणायाम का अभ्यास सुबह सूर्य निकलने से पहले और शाम को सूर्य अस्त होने के 2 घंटे बाद करना चाहिए।  जिस व्यक्ति को अर्जीण रोग हो या शारीरिक मेहनत अधिक करनी पड़ रही हो या दिन भर के कामों से थकावट आ जाती हो, उसे शाम के समय प्राणायाम का अभ्यास कम करना चाहिए। अधिक थकावट में भी अधिक प्राणायाम का अभ्यास करने से फेफड़ों के रोग होने की संभावना रहती है।

प्राणायाम के अभ्यास में भोजन-

          प्राणायाम खाली पेट करना चाहिए तथा भोजन के 3 से 4 घंटे बाद ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। भोजन हमेशा ऐसा करें, जो आसानी से पचने वाला हो। अधिक, भारी व मांसहारी भोजन न करें। अभ्यास के क्रम में हमेशा सादा भोजन ही करें। रोटी, चावल, साग, खिचड़ी के साथ दूध, घी, फल, सूखे मेवे आदि का भोजन करना अभ्यास के लिए लाभकारी होता है।

प्राणायाम के लिए शरीर की स्थिति-

          प्राणायाम के अभ्यास के लिए पद्मासन, सिद्धासन, स्वास्तिक आसन और सुखासन को अच्छा माना गया है। प्राणायाम से पहले अधिक समय तक आसन में बैठने का पूर्ण अभ्यास कर लेना चाहिए। आसन हल्का मुलायम होना चाहिए तथा सिर, गर्दन व पीठ बिल्कुल सीधा रखकर ही अभ्यास करना चाहिए। शरीर को तानकर व झुके हुए न रखें।

प्राणायाम में स्वर का महत्व-

          प्राणायाम से पहले स्वर का भी जान लेना आवश्यक है। नाक के दाएं छिद्र को सूर्य स्वर और बाएं को चन्द्र स्वर कहते हैं। प्राणायाम के अभ्यास में सांस पहले नाक के बाएं छिद्र (चन्द्र स्वर) से लें। यदि उस समय दायां स्वर चल रहा हो, तो बाएं ओर लोटने से दायां स्वर बायां हो जाता है या दाएं बगल में बाएं हाथ की मुट्ठी को रखकर बलपूर्वक दबाने से कुछ ही समय में बायां स्वर चलने लगेगा। एक महात्मा द्वारा बताया गया है कि जब चन्द्र स्वर चलने लगे तो फिर कोमल मात्रा करके सम स्वर कर लें। सम स्वर करने के बाद जो प्राणायाम किया जाएगा, वह सफलता देने वाला होता है।

प्राणायाम के साथ बन्ध साधना का महत्व-

          प्राणायाम के साथ बन्ध लगाना आवश्यक बताया गया है। मूल बन्ध शुरू से अन्त तक लगा ही रहना चाहिए। सांस को अन्दर खींचकर (पूरक करके), तुरन्त ही जालन्धर बन्ध लगाया जाता है। सांसों को रोककर (कुम्भक करके), जब सांस को बाहर छोड़ते (रेचक करते हैं) है तब उड्डीयान बन्ध लगाकर जालन्धर खोल देने का नियम बनाया गया है।

कुण्डलिनीपनिद्वषद में बन्धों का महत्व-

कुण्डलिनीपनिद्वषद बन्धों के महत्व का वर्णन योग में इस प्रकार किया गया है-

          ´´अधोगति वाले अपान को शक्तिपूर्वक गुदा को सिकोड़ कर ऊपर ले जाने से मूलबंध होता है। मूलबंध लगाने से अपान ऊपर जाकर वहिनमण्डल से मिलता है, जिसके प्रभाव से नाभि में स्थित अग्नि अधिक तेज हो जाती है। नाभि में उत्पन्न होने वाली उस तेज ज्वाला के कारण प्राणवायु तपकर नाभि में सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करती है। इस क्रिया से नाभि में स्थिति यह ऊर्जा सर्प के समान तेज गति के साथ सीधी हो जाती है।

          नाभि में उत्पन्न होने वाली यह ऊर्जा शक्ति सुषुम्ना के अन्दर प्रवेश करती है। इसलिए योगियों को मूलबन्ध का अभ्यास करना चाहिए। सांसों को रोककर रखें (कुम्भक करें) और इसके बाद सांसों को बाहर छोड़कर (रेचक करके) पूर्व उडि्डयान बन्ध करने से प्राण वायु सुशम्ना के भीतर फैलने लगती है। इसलिए योगियों ने इसे उडि्डयान बंध कहा हैं। उडि्डयान बन्ध लगाने के लिए वज्रासन में बैठकर पैरों को हाथों से कसकर पकड़ लेना चाहिए और जहां गुल्फ (टखना) रखा जाता है, वहां कन्दस्थानों को दबायें। पेट को ऊपर की तरफ खींचें और हृदय व गले को भी तानकर खींचें। इस विधि से क्रमश: पेट की संधियों में प्रवेश करता है और पेट के सभी रोग दूर होते हैं। इसका अभ्यास नियमित करना चाहिए।

          जालन्धर बंध में कंठ को सिकोड़ कर वायु को रोका जाता है। जालन्धर बंध वायु को अन्दर खींचने (पूरक) के बाद लगाया जाता है। शरीर के निचले भाग में मूलबंध द्वारा गुदा को सिकोड़ कर वायु को रोका जाता है और शरीर के ऊपरी भागों को जालन्धर बंध द्वारा सिकोड़ कर वायु को रोका जाता है तथा बीच में उडि्डयान बन्ध लगाकर नाभि की प्राणवायु को ऊपर की ओर खींचा जाता है। इस प्रकार प्राण (वायु) को सभी तरफ से रोकने से प्राण सुषुम्ना में ऊपर की ओर बढ़ता है। सम्यक प्रकार से आसन पर बैठकर सरस्वती का चालन करके प्राण को रोकना चाहिए। प्रथम दिन 4 कुम्भक को 10-10 बार करना चाहिए और दूसरे दिन इस कुम्भक को 15-15 बार करना चाहिए। तीसरे दिन 20 बार अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार प्रतिदिन 5-5 करके अभ्यास को बढ़ाने से लाभ होता है। इन कुम्भकों का अभ्यास प्रतिदिन 3 बन्ध के साथ करना चाहिए।

          इस प्रकार प्राणायाम का अभ्यास प्रतिदिन स्वच्छ मन से करना चाहिए। इससे चित्त (मन) सुषुम्ना संलग्न रहता है और उसमें प्राण दौड़ता है। जब मन शुद्ध हो जाए और प्राण चलने लगे तब प्रयत्नपूर्वक अपान को ऊध्र्वगति करना चाहिए। इसके लिए जो गुदा को सिकोड़ा जाता है, उसे मूलबंध कहते हैं। यह अपान ऊपर जाकर अग्नि के साथ मिलकर ऊपर चढ़ता है। जब यह अग्नि नाभि में पहुंचती है और प्राणवायु से मिलती है, तो सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है। नाभि में अग्नि पहुंचने से प्राण वायु गर्म होती है और वह वायु के साथ मिल जाती है, जिससे कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है और वह सुषुम्ना के मुख में प्रवेश करती है।

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार-

          प्राणायाम में आहार-विहार आदि का ध्यान रखना और प्राणायाम के साथ तीनों बन्धों को लगाकर की जाने वाली क्रिया को युक्त प्राणायाम कहा जाता है। युक्त प्राणायाम से सभी शारीरिक व मानसिक रोग दूर होते हैं। अयुक्त प्राणायाम में युक्त प्राणायाम के सभी नियमों का पालन करने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं।

          अयुक्त प्राणायाम से प्राणवायु का प्रकोप होता है, जिससे  हिचकी, खांसी, सिर, कान, आंख आदि में दर्द जैसे रोग पैदा हो जाते है और इसके साथ ही व्यक्ति को बुखार आदि उत्पन्न होने की संभावना होती है।

प्राणायाम में हानि की संभावना-

          वायु (सांस) को रोककर रखने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं। वायु (सांस) इस तरह खींचें (कुम्भक करें) कि अन्दर वायु सही रूप में स्थित हो जाए। वायु की स्थिति अन्दर सही होने से वायु को बाहर धीरे-धीरे निकालने (रेचन करना) में आसानी होती है। वायु (सांस) अन्दर खींचने की क्रिया (पूरक) भी सावधानी से करनी चाहिए। पूरक में सांस को धीरे-धीरे अन्दर खींचना चाहिए। वायु को अन्दर खींचते समय (पूरक करना) करते समय जल्दबाजी नहीं करनी चहिए। इससे फेफड़े को हानि हो सकती है, क्योंकि वायु (सांस) को जल्दी-जल्दी खींचने से अन्दर वायु एकत्रित नहीं हो पाती, जिससे वायु को अन्दर अधिक समय तक नहीं रोका जा सकता (कुम्भक क्रिया अधिक समय तक नहीं किया जा सकाता है)। इससे फेफड़े के कोशों को भी हानि पहुंच सकती है। सांस (वायु) को बाहर छोड़ते समय सावधानी रखें व वायु धीरे-धीरे बाहर निकालें। वायु के तेजी से बाहर निकालने से फेफड़ों को हानि पहुंच सकती है। वायु को बाहर निकालने के बाद जब वायु पूर्ण रूप से बाहर निकाल जाएं, तो कुछ क्षण सांस को बाहर ही रोककर रखें (कुम्भक करें)। इससे फेफड़ों को अतिरिक्त शक्ति मिलती है।

हठयोग में कहा गया है-

          जिस प्रकार सिंह आदि जानवरों को वश में किया जाता है, उसी तरह धीरे-धीरे प्राण को भी अपने नियंत्रण में करना चाहिए। प्राण को वश में करने के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। प्राण को वश में करने के लिए शीघ्रता करने से वैसे ही व्यक्ति को हानि पहुंचती है, जैसे जानवरों को शीघ्रता से वश में करने से जानवर द्वारा व्यक्ति को हानि पहुंचती है।

          इस उदाहरण के द्वारा प्राणायाम का अभ्यास करने वालों को यह बताना है कि प्राणशक्ति को नियंत्रण करने के लिए जल्दबाजी या उत्तवाला पन नहीं करना चाहिए तथा नियमित अभ्यास करते रहना चाहिए। शांत व स्वच्छ मन और पूर्ण धैर्यता के साथ अभ्यास करते रहने से कुछ दिन में ही प्राणशक्ति पर नियंत्रण होने के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। प्राणायाम का अभ्यास पहले आधे मिनट से शुरू करना चाहिए और धीरे-धीरे इसके समय को बढ़ाना चाहिए। प्राणायाम के अभ्यास का सबसे महत्वपूर्ण अंग है इसके नियम और इसके नियमों का पालन नहीं करने वाले को प्राणायाम से हानि होती है।

          जो व्यक्ति प्राणायाम के अभ्यासों के नियमों का पालन नहीं करता और बिना किसी योग शिक्षक या अनुभवी गुरू के बिना ही उल्टा-सीधा अभ्यास करता है और अपना चमत्कार दिखाने की कोशिश करता है उसे प्राणायाम से हानि होती है। प्राणायाम का सबसे पहला नियम है कि अभ्यास वाले स्थान पर हवा का तेज प्रवाह न हो और प्राणायाम का अभ्यास सही मौसम में ही शुरू करना चाहिए। प्राणायाम का अभ्यास जुकाम अथवा भोजन करने के तुरन्त बाद नहीं करना चाहिए। ऐसी स्थिति में अभ्यास करने से हानि हो सकती है। थकावट आदि में भी प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए।

मौसम व शरीर के प्रकृति के अनुसार प्राणायाम अभ्यास के नियम-

कोमल शरीर वाला-

          कोमल शरीर वाले व्यक्ति को नाड़ी अवरोध, भस्त्रिका, एकांग स्तम्भ, सर्वांग स्तम्भ, मुख प्रसारण (पूरक), हृदय स्तब्ध, अग्नि प्रदीप्त व वायवीय कुम्भक नहीं करना चाहिए।

पित्त प्रकृति (गर्म स्वभाव) वाला-

         पित्त प्रकृति या गर्म स्वभाव वाले व्यक्ति को भस्त्रिका प्राणायाम नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह पित्त को बढ़ाता है और वात व कफ को शांत करता है।

वात (ठंडे) प्रकृति वाले-

          जिस व्यक्ति की प्रकृति वात प्रधान हो, उसे शीतली, प्लावनी, उदरपूरक, शीतकार, सीत्कारी, कंठ वायु प्राणायाम अभ्यास नहीं करना चाहिए। इसके अभ्यास से हानि हो सकती है।

गर्मी के मौसम-

          गर्मी के मौसम में पित्त प्रकृति या गर्म स्वभाव वाले व्यक्ति को सूर्य भेद प्राणायाम, भस्त्रिका प्राणायाम, एकांग स्तम्भ, सर्वांग स्तम्भ, अवरोध, मुख प्रसारण (पूरक) व अग्नि प्रदीप्ति प्राणायाम नहीं करना चाहिए।

          जिनकी प्रकृति कफ प्रधान है, वह इन प्राणायामों को पर्वतीय स्थान अर्थात ऐसी जगह जहां शांत व स्वच्छ पानी का बहाव हो, हरे-भरे मैदान हो तथा पेड़-पौधे आदि स्वच्छ प्राकृतिक वातावरण हो वहां पर इसका अभ्यास किया जा सकता है।

सर्दी के मौसम-

          सर्दी के मौसम में सितकारी, शीतला, चन्द्रभेदी प्राणायामों का अभ्यास नहीं करना चाहिए।

         परन्तु जिनकी प्रकृति पित्त (गर्मी) प्रधान हो, वे इन प्राणायामों का अभ्यास सर्दी के मौसम में भी कर सकते हैं।

          शीतली प्राणायाम पित्त को शांत करने वाला होता है। इसलिए पित्त से उत्पन्न होने वाले रोगों को खत्म करने के लिए इसका अभ्यास करना चाहिए। इस प्राणायाम में पूरक करने से पित्त बढ़ता है और पूरक के बाद आंतरिक कुम्भक करने से पित्त उत्पन्न होता है। इसलिए जिसका शरीर वात और कफ प्रधान हो उसे इसका अभ्यास करना चाहिए। इसमें रेचक करने से समस्त रोग दूर हो जाते हैं। इसके लिए ऋतु और प्रकृति का कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

          प्राणायाम के अभ्यास से पहले व्यक्ति को अपनी शारीरिक प्रकृति के बारे में जानना आवश्यक है। जिससे वह प्राणायाम का अभ्यास अपनी प्रकृति के अनुसार कर सके। ज्वर (बुखार) में प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए। गर्भावस्था में भी प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए। प्राणायाम के अभ्यास और नियमों की पूर्ण जानकारी के बिना अभ्यास करने पर हानि हो सकती है। प्राणायाम का अभ्यास सावधानी और अनुभवी गुरू की देखरेख में करना चाहिए।