रविवार, 6 मई 2018

अमलतास

इसका संस्कृत साहित्य में एक नाम "कर्णिकार" भी है और महाकवि कालिदास ने इसकी शोभा का वर्णन इस तरह किया है, अन्य ने भी :--
"समदमधुभराणां कोकिलानां च नादै: कुसुमितसहकारै: कर्णिकारैश्च रम्य: | इषुभिरिव सुतीक्ष्णैर्मानस मानिनीनां तदुति कुसुममासो मनमथोद्वेजनाय|| ऋतुसहार ||
"वर्ण प्रकर्षे सति कर्णिकारं दुनोति निर्गन्धतया स्म चेत: || कुमारसंभव||
"अशोटनिर्भर्स्तिपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णिकारम् | मुक्ताकलापीकृतसिन्धुवारं वसन्त पुष्पाभरणं वहन्ती || कुमारसंभव||
  🍂आनन्दराय ने अपने जीवानन्दनम् नामक नाटक में :--
"कृतमाले टिट्टिभको रसालवृक्षे कोकिला वसति | नीपविटपे शिखण्डी जम्बूशिखरे शुक एक:||
  🌷🙏इनका अर्थ- भावार्थ आचार्य वर सुधाकर जी शर्मा करें🌹
🌷आरग्वध🌷
      अमलतास का संस्कृत में सबसे अधिक प्रचलित नाम आरग्वध है, इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बताई है:--"आ समन्तात् रुजं बधति (छिन्नति) इति *वा* आरगं रोगशंकां वधतीति आरग्वध: ||"
     यानि रोगों को नष्ट करने वाला होने से इसका नाम आरग्वध है |
🍂प्राकृतिक वर्गीकरण में यह शिम्बीकुल ( लेग्युमिनोसी) की वनोषधि है | इस कुल में फल सेम की आकृतिसम होते हैं | इस Leguminoseae कुल के तीन उपकुल हैं :--
1. अपराजित उपकुल.
2. पूतिकरंज उपकुल.
3. बब्बूल उपकुल.
      इनमें किरमालो पूतिकरंज उपकुल Caesalpiniidae नामक उपकुल की 12 औषधियों में से एक है |
🍂भा.प्र.कार ने हरीतक्यादि वर्ग तथा महर्षि चरकेण तिक्तस्कंध तथा सुश्रुत ने आरग्वधादिगण एवं श्यामादिगण में इसे अधोभागदोषहर कहकर निरुपित किया है तथा व्याधिघात कहा है|
: 🌷अमलतास के संस्कृत नाम और उनकी निरुक्ति:--
आरग्वध:--- "आ समन्तात् रग्यते शंक्यते इति आरक्। आरगं रोगशंकामपि हन्ति इति| यह रोग की शंका मात्र को नष्ट करता है|
  "आ रगणम् इति अपि, "रगे शंकायाम्" इस प्रकार भी निरुक्ति की जाती है |
"आ समन्तात् रुजं वधति छिनत्ति इति |" यह चारों तरफ से रोग या वेदना मात्र का नाश करता है|
🍂राजवृक्ष:--
        "राजा चासौ वृक्षश्चेति| वृक्षाणां राजा इति वा |
      यह वृक्षों में राजा के सम है, क्योंकि इसके पुष्प अतिशय शोभादायी होते हैं |
   "रोगाणां राजानं वृश्चति इति वा| रोगराजं वृश्चतीति वा | यह रोगों के राजा ( बिबंध) को नष्ट करता है |
  प्राचीन समय में यह राजपथ पर दोनों तरफ लगाया जाने से भी राजवृक्ष कहा जाता है |
🍂सम्पाक:--
        "सम्यक् पाको$स्य इति |" शं कल्याणं पाको$स्य इति वा (शम्पाक:)| इसके प्रयोग से दोषमात्र का पचन शीघ्र तथा सम्यक.होता.है |
🍂शम्याक् :-- शमीं शिम्बीम् अकति इति शम्याक: |"
आरेवत:--
      "आ रेवयति नि:सारयति मलं सारकत्वात् इति |" यह रेचक एवं सारक होने से मल को भलीभाँति बाहर निकालता है |
     "अरेवती रोगदेवता| अरेवत्यां भव: इति आरेवत: | आरेवते ज्वरो$नेन वा इति आरेवत: | यह अरेवती नामक रोगदेवता के नाश के लिए उत्पन्न होता है |
    अथवा इससे ज्वर यानि रोगमात्र का नाश होता है |
🍂कृतमाल:-- कृता माला$स्य पुष्पै: इति | इसके सोने के रंग जैसे फूलों से मालाएँ बनायी जाती हैं , जो बहुत सुन्दर लगती हैं |
🍂सुवर्णक:-- स्वर्णसम सुन्दर वर्ण पुष्प तथा ( सुपर्णक- पाठान्तर ) इसके नवीन पत्र सुन्दर होने के कारण | यानि यह वृक्ष सुदर्शनीय होता है |
🍂आरोग्यशिम्बी :-- इसकी फली का गूदा आरोग्य संरक्षण में उत्तम.है ( गुजराती- गरमालानो गोल )||
🍂द्रुमोत्पल :--
        इसके पुष्प कमल सम शोभायमान होते है, सपुष्प होने पर यह द्रुमों में उत्पल सम शोभित होता है |
🍂परिव्याध:-- यह रोगों को चारों तरफ से ताडन करके बाहर निकालता है |
🍂कर्णिकार:-- प्रभूत मात्रा में पुष्प कलिकाएँ आती हैं, जो पूरे वृक्ष को आच्छादित कर लेती हैं |
🌹अन्य नाम:--
  व्याधिघात, दीर्घफल, चतुरंगुल, प्रग्रह |
  🍂 अमलतास, किरमालो, गरमालो आदि.
महाराष्ट्र- बाहवा| पंजाबी- गिर्दनली| मालवी- किरमाल, गिरमाल |.
  Cassia fistula.
अंग्रेजी- Purging Cassia.
🍂पंक्तिपत्रो महाशिम्बी विटपी राजपादप:| महाजम्बूपत्रसदृक्पत्रश्च गिरिवासि च || शिवदत्त: ||
कैंसर में प्रयोग का तो पता नहीं |लेकिन यह परम स्रंसन द्रव्य ( फली का गूदा) है |
🍂 जो किशोर- किशोरी रात में सोते हुए दांत किटकिटाते हों या दांत पीसते हों या अचानक जिनकी निद्रा भंग हो जाती हो या भयज स्वप्न देखते हों तथा नींद उचटकर भयभीत से हो जातेहों :--
    एसे रोगियों के सिरहाने बिस्तर के नीचे गिर्दनली की पकी तथा सूखी फली रख दें | कुछ दिन में ठीक हो जाएगा | ठीक होने की रफ्तार मंद हो तो, फली बदलते रहें ||
कैंसर के रोगी के तीन लक्षण शूल,विबंध, ज्वर आरग्वध से एक साथ शमन हो रहे हैं।लेखन भी है, कार्य कर सकता है।
✔🌹यानि यह एक सहायक ओषध सिद्ध है | इसके गुणधर्म विवेचन में तथा इसके स्रंसन गुणधर्म की अभिव्यंजना के समय यह सिद्ध हो जाएगा | यूँतो इसे विषहर भी माना है और विभिन्न अगद योगों में भी यह.घटक है|
काम करेगा सर🌷🙏
   फलियां बदलते रहना एक एक सप्ताह से और देव धनत्तर तथा ओषधियों के राजा चन्द्रमा तथा ओषधि को प्रणाम कर, सिरहाने रख लें | डॉ हरिओम जी  ,हमने जब से  होश  आया है  , खाट के  अंदर   अमलतास की फली  लगी देखी है

माताजी का पीहर  थानागाजी   ,सरिस्का   के  जंगल के   पास   था   ,  किसी  वैद्य जी  द्वारा   बताया गया होगा ।।

इसी  कारण हमारा भी भला हो गया  ।।। इसलिए तो इसका नाम व्याधिघात और आरग्वध है|
   यह ओषधि कुछ दिव्यता भी रखती है | यानि इसके कुछ कार्मुकताएँ प्रभाव जन्य हैं |: श्रीराम जी अपने क्षेत्र में तो पहले लगभग सभी चारपाइयों में  इसकी फली लगाते थे: इसको बालग्रह के शमन में समर्थकारी ओषधि के रुप में ग्रामीण जन मानता है | पूतना, अन्धपूतनादि बालग्रहों के दुष्प्रभाव की शामक मानी जाती है गिर्दनली🌷🙏
🌷महर्षि चरक ने अमलतास को तिक्तस्कंध में वर्णित करते कुष्ठघ्न, कण्डूघ्न होने के साथ विरेचन निरुपित किया है |
🌷 महर्षि सुश्रुत ने अधोभागदोषहर बताकर विरेचन द्रव्यों में श्रेष्ठ माना है |
  🍂 विरेचक दो प्रकार के होते हैं:-- सामान्य और तीव्र |
🍂पुनश्च सामान्य विरेचन के अनुलोमन एवं स्रंसन दो उपभेद होते हैं |
🌹स्रंसन द्रव्यों में आरग्वध का मुकाबला नहीं है, सुश्रुत इसे सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं|
🍂शारंगधर द्वारा स्रंसन की परिभाषा भी देखिए:--
"पक्तव्यं यदपक्त्वैव श्लिष्ठं कोष्ठे मलादिकम् | नयत्यध: स्रंसनं तद यथा स्यात् कृतमालकम् ||
   🍂यानि अरावली की रणथम्बोर की उपत्यकाओं में प्रयोगेण शारंगधर आचार्य ने भी यही पाया, जो चरकादि ने पाया, हो उदाहरण भी कृतमाल ( अमलतास) का ही दिया है |
     सुतरां जहाँ मृदुविरेचन आवश्यक समझें वहां इस व्याधिघात का ही प्रयोग प्रशस्त है|
🌹सुश्रुत आरग्वधादि तथा श्यामादिगण में परिगणन करते हुए कह रहे हैं कि आरग्वधादि गण कफ व विष का हारक है तथा प्रमेह, कुष्ठ, ज्वर, वमन और कण्डू नाशक है |
  श्यामादिगण गुल्म, विष, आनाह तथा उदररोग नाशक है |
सियार लाठी भी कहते ह
: ✔🌹
राजस्थान में धनबहेडा भी |
अरबी-- खियारशंबर.
फारसी - खियार चंवर.
सिन्धी - छिमकणी.
बंगला- सोंदाल.
तामिल- इराद्यविरुट्टम् | अमलतास:- एक जाती विशेष में शादी के समय दुल्हन को गले में पहनायी जाती है जिसे बड़ा गहना कहा जाता है।
जो बच्चे बिस्तर पर पेशाब करते हैं उनके सिरहाने अमलतास की फली रख देने से प्रभाव मात्र से लाभ होता है🌷राजेशजी सर बात तो बढिया पूछत भये आप😄
   लेकिन इन कारणों की गवेषणा शेष हैं |
  🙏और फिर सुनो ना ! इस आरेवत ( अमलतास) की ही बात नहीं है केवल, एसी बहुत सारी वनोषधियों हैं जिनके प्रभाव अदभुद् है तथा निघण्टुओं में एवं सहिताओं में उन कार्मुकताओं को प्रभावजन्य घोषित कर दिया है|
  🌷लेकिन जैसे आप उन कारणों को जानना चाहते हैं यानि कार्मुकता के आधारों को जानने की लालायित हैं, वैसे ही हर कोई जानने को उत्सुक होगा 🌷
    क्योंकि विग्यान के प्रकटीकरण यानि प्रयोग की आधारभूमि को जानना ही गवेषणा है |
   और यह काम आयुर्वेद में बाकी है और जब यह काम हो जाएगा, तब, जनमानस भी आयुर्वेद को ग्राह्य मान लेगा🙏🌷
: 🌷अमलतास:--
उपयोगी अंग-- फली की मज्जा, मूल त्वक, पुष्प- पत्र |
    छाल से *सुमारी* नामक रस निकारकर चमडा रगा जाता है, पहले छाल को पानी में सडाकर रेशा निकाले जाते थे, जिनकी रस्सी बनाई जाती थी | इसके तने से एक लाल रंग का रस भी निकलता है, जो ब्रह्मवृक्ष पलाश के गोंद जैसा जम जाता है |
🌷भेद :-- यद्यपि निघण्टुओं में इसके भेद नहीं मिलते हैं, लेकिन विद्वत जन ने *कर्णिकार* को हृस्व अमलतास माना है |
  जिसे बगला में छोटा.सोनालुगाछ, मराठी में लघु बाहवा, तेलगु में किरुगक्के कहते है, फलियां छोटी होती.हैं
  🍂श्रीकृष्णप्रसाद त्रिवेदी के अनुसार *राजनिघण्टु* का कर्णिकार लघु अमलतास है | यह मध्य प्रदेश में पाया जाता है | देखिए राजनिघण्टु:--
"कर्णिकार: सरस्तिक्त: कटूष्ण: कफशूलहा | उदरकृमिमेहघ्नो व्रणगुल्महरो नृप ||
🌹वैसे अमलतास को :-
रस में मधुर, तिक्त|
गुण:-- गुरु, मृदु, स्निग्ध|
वीर्य- शीत |
विपाक- मधुर|
दोषकर्म- वातपित्तनाशक| यह मधुर और स्निग्ध होने से वायु तथा शीत होने से पित्तशामक| रेचन ( स्रंसन- श्लिष्ठ मल निष्कासन) होने से कोष्ठगत पित्त और कफ का भी संशोधक है | पित्ते तु विरेचनम्- तो कहा ही है |
🌵अधिक प्रयोग से मरोड व कुंथन ( प्रवाहण) जनक है|
    क्वाथ करने से फलमज्जा की शक्ति कम होती है , अत हिम या फाण्ट प्रयोग हितकर है |
🌷दुष्प्रभाव निवारक:-- मस्तगी, अनीसून और स्नेह | 🌷महर्षि चरक ने अमलतास को तिक्तस्कंध में वर्णित करते कुष्ठघ्न, कण्डूघ्न होने के साथ विरेचन निरुपित किया है |
🌷 महर्षि सुश्रुत ने अधोभागदोषहर बताकर विरेचन द्रव्यों में श्रेष्ठ माना है |
  🍂 विरेचक दो प्रकार के होते हैं:-- सामान्य और तीव्र |
🍂पुनश्च सामान्य विरेचन के अनुलोमन एवं स्रंसन दो उपभेद होते हैं |
🌹स्रंसन द्रव्यों में आरग्वध का मुकाबला नहीं है, सुश्रुत इसे सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं|
🍂शारंगधर द्वारा स्रंसन की परिभाषा भी देखिए:--
"पक्तव्यं यदपक्त्वैव श्लिष्ठं कोष्ठे मलादिकम् | नयत्यध: स्रंसनं तद यथा स्यात् कृतमालकम् ||
   🍂यानि अरावली की रणथम्बोर की उपत्यकाओं में प्रयोगेण शारंगधर आचार्य ने भी यही पाया, जो चरकादि ने पाया, हो उदाहरण भी कृतमाल ( अमलतास) का ही दिया है |
     सुतरां जहाँ मृदुविरेचन आवश्यक समझें वहां इस व्याधिघात का ही प्रयोग प्रशस्त है|
🌹सुश्रुत आरग्वधादि तथा श्यामादिगण में परिगणन करते हुए कह रहे हैं कि आरग्वधादि गण कफ व विष का हारक है तथा प्रमेह, कुष्ठ, ज्वर, वमन और कण्डू नाशक है |
  श्यामादिगण गुल्म, विष, आनाह तथा उदररोग नाशक है |