गुरुवार, 12 नवंबर 2015

पित्त रोग--चिकित्सा

पित्त
        यह स्पर्श और गुण में उष्ण होता है, अर्थात् अग्नि रूप होता है एवं द्रव (तरल) रूप में रहता है। इसका वर्ण पीला एवं नीला होता है। यह सत्त्वगुण प्रधान होता है, रस में कटु (चरपरा) और तिक्त (कड़वा) होता है तथा दूषित होने पर खट्टा हो जाता है।  
पित्त प्रकृति के लक्षण
    पित्त प्रकृति मनुष्य के बाल समय से पहले ही श्वेत हो जाते हैं, परन्तु वह बुद्धिमान् होता है। उसे पसीना अधिक आता है। उसके स्वभाव में क्रोध अधिक होता है और इस तरह का मनुष्य निद्रावस्था में चमकीली चीजें देखता है।  
पित्त के स्थान एवं कार्य
        अग्नाशय (पक्वाशय के मध्य) में अग्नि रूप (पाचक रूप) परिमाण की स्थिति में रहता है। इसको पाचक पित्त कहते हैं। यह चतुर्दिक आहार को पचाता है। इसका वर्णन इस प्रकार भी किया जा सकता है:
        त्वचा (चमड़ी) में जो पित्त रहता है, वह त्वचा में कांति (प्रभा)की उत्पत्ति करता है और शरीर की वाह्य त्वचा पर लगाये हुये लेप और अभ्यंग को पचाता (शोषण करता) है। यह शरीर के तापमान को स्थिर रखता है। इसको श्राजक पित्त कहते हैं।
        जो पित्त दोनों नेत्रों में रहकर (कृष्ण-पीतादि)रूपोें का ज्ञान देता हैै, उसको आलोचक (दिखाने वाला) पित्त कहते है। जो पित्त हृदय में रहकर मेधा (धारणाशक्ति) और प्रज्ञा (बुद्धि) को देता है, वह ‘साधक’ पित्त होता है। 
      इस प्रकार नाम और कर्म भेद से पित्त पाँच प्रकार का होता है। और यही पित्त समग्र शरीर को उत्तम रखने का कारण है।
पित्त रोग वर्णन             
        अब पित्त से होने वाले 40 रोगों का वर्णन किया जाता है:
1. धूमोद्वार    -   ( डकार से निकलने वाली वायु धंुए सा प्रतीत होता है )।
2. विदाह     -   ( इसमें हाथ, पांव, नेत्रादि में जलन होती है )।
3. उष्णाड्डत्व   -   ( शरीर के अंगों का गरम रहना )।
4. मतिभ्रम    -   ( पित्त की अत्यधिक वृद्धि से बुद्धि श्रमित हो जाती है )।
5. कांति हानि  -   ( शरीर के वर्ण में मलिनतायुक्त पीत वर्ण का बोध होना )।
6. कंठ शोष   -   ( कंठ का सूखना )।
7. मुख शोष  -   ( मुख का सूखना )।
8. अल्प शुक्रता -   ( वीर्य का अल्प होना )।
9. तिक्तास्यता -   ( मुख का स्वाद कड़वा रहना )।
10. अम्लवक्त्रता -   ( मुख का स्वाद खट्टा सा रहे )।
11. स्वेदस्त्राव  -   ( पसीने का अधिक आना )।
12. अंग पाक  -   ( पित्ताधिक्य के कारण शरीर का पक जाना )।
13. क्मल      -   ( परिश्रम के बिना ही थकावट का होना )।
14. हरितवर्णत्व -   ( पित्त के मलयुक्त होने पर हरा सा वर्ण होता है )।
15. अतृप्ति    -   ( भोजनादि में तृप्ति नहीं होती )।
16. पीत गात्रता -   ( अंगों का पीला होना )।
17. रक्त स्त्राव -   ( रुधिर प्रवृत्ति )।
18. अंग दरण  -   ( अंगों में दरण्वत पीड़ा )।
19. लोह गन्धास्यता-   ( निःश्वसित श्वास में लोहे की गन्ध का होना )।
20. दौर्गान्ध्य   -   ( पसीने में दुर्गन्ध का आना )। 
21. पीतमूत्रता  -   ( मूत्र का पीत वर्ण होना )।
22. अरति     -   ( बेचैनी का होना )।
23. पीत विट्कता -   ( पुरीष का पीत होना )।
24. पीतावलोकन -   ( पीला ही पीला दिखना )।
25. पीत नेत्रता -   ( नेत्रों का पीला होना )।
26. पीत दन्तता -   ( दांतांे का पीला होना )। 
27. शीतेच्छा    -   ( शीतल पदार्थ और शीतल वायु की अभिलाषा सर्वदा होना )।
28. पीतनखता -   ( नाखूनों का पीला होना )।
29. तेजो द्वेष   -   ( अत्यंत चमकीली वस्तुओं से द्वेष )।
30. अल्पनिद्रा  -    ( थोड़ी निद्रा का आना )।
31. कोप      -    ( क्रोधी स्वभाव का होना )।
32. गात्रसाद   -    ( अं्रगों में द्रढता का अभाव )।
33. भिलविट्कता -    ( पुरीष का द्रव रूप में आना )।
34. अन्धता    -    ( नेत्र ज्योति का हृास )।
35. उष्णोच्छवास -    ( वायु का गरम होकर आना )।
36. उष्ण मूत्रता -    ( मूत्र का गरम होना )।
37. उष्ण मानता -    ( मल का स्पशौषणा होना )।
38. तमसोदर्शन -    ( अन्धकार का दिखना )।
39. पीतमण्डल दर्शन -  ( पीले मण्डलों का दिखना )।
40. निःसहत्व -    ( सहन शक्ति का अभाव होना )।
इस प्रकार पित्त जनित ये 40 रोग हैः  
पित्त प्रकोप एवं शमन            
         विदाहि ( वंश, करीरादि पित्त प्रकोपक ), कटु (तीक्ष्ण), अम्ल (खट्टे) एवं अत्युष्ण भोजनों (खानपानादि) के सेवन से, अत्यधिक धूप अथवा अग्नि सेवन से, क्षुधा और प्यास के रोकने से, अन्न के पाचन काल में, मध्याह्न में और आधी रात के समय उपरोक्त कारणों से पित्त का कोप ( पित्त का दुष्ट ) होता है। इन कारणों के विपरीत (उल्टा) आचरण करने से और विपरीत समयों में पित्त का शमन होता है। 
 पित्तजनित दोषों को दूर करने हेतु औषधि
1- शतावरी का रस दो तोला में मधु पांच ग्राम मिलाकर पीने से पित्त जनित शूल दूर होता है।
2- हरड,़ बहेड़ा, आंवला, अमलतास की फली का गूदा, इन चारों औषधियों के काढे़ में खांड़ और शहद मिलाकर पीने से रक्तपित्त और पित्तजनित शूल (नाभिस्थान अथवा पित्त और पित्तजनित शूल ) नाभिस्थान अथवा पित्त वाहिनियों में पित्त संचित और अवरुद्ध होने से उत्पन्न होने वाले शूल को अवश्य दूर करता है। 
नोट- काढ़ा बनाने हेतु दवा के मिश्रण से 16 गुना पानी डालकर मंद आंच में पकायें। जब पानी एक चौथाई रह जाये, तो उसे ठंडा करके पीना चाहिये। इस काढ़ा की मात्रा चार तोला के आसपास रखनी चाहिए।  
3- पीपल (गीली) चरपरी होने पर भी कोमल और शीतवीर्य होने से पित्त को शान्त करती है।
4- खट्टा आंवला, लवण रस और सेंधा नमक भी शीतवीर्य होने से पित्त को शान्त करती है।
5- गिलोय का रस कटु और उष्ण होने पर भी पित्त को शान्त करता है।
6- हरीतकी (पीली हरड़) 25 ग्राम, मुनक्का 50 ग्राम, दोनों को सिल पर बारीक पीसकर उसमें 75 ग्राम बहेड़े का चूर्ण मिला लें। चने के बराबर गोलियां बनाकर प्रतिदिन प्रातःकाल ताजा जल से दो या तीन गोली सेवन करें। इसके सेवन से समस्त पित्त रोगों का शमन होता है। हृदय रोग, रक्त के रोग, विषम ज्वर, पाण्डु-कामला, अरुचि, उबकाई, कष्ट, प्रमेह, अपरा, गुल्म आदि अनेक ब्याधियाँ नष्ट होती हैं।
7- 10 ग्राम आंवला रात्रि में पानी में भिगो दें। प्रातःकाल आंवले को मसलकर छान लें। इस पानी में थोड़ी मिश्री और जीरे का चूर्ण मिलाकर सेवन करें। तमाम पित्त रोगों की रामबाण औषधि है। इसका प्रयोग 15-20 दिन करना चाहिए।
8- शंखभस्म 1ग्राम, सोंठ का चूर्ण आधा ग्राम, आँवला का चूर्ण आधा ग्राम, इन तीनों औषधियों को शहद में मिलाकर सुबह खाली पेट एवं शाम को खाने के एक घण्टे बाद लेने से अम्लपित्त दूर होता है।
नोट- वैसे तो सभी नुस्खे पूर्णतः निरापद हैं, परन्तु फिर भी इन्हें किसी अच्छे वैद्य से समझकर व सही दवाओं का चयन कर उचित मात्रा में सेवन करें, तो ही अच्छा रहेगा। गलत रूप से किसी दवा का सेवन नुकसान दायक भी हो सकता है

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